योग क्या है ?
योग शब्द
की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ´युज´ धातु हुई है,´युज´ धातु से बना होने के कारण
इसका अर्थ ´जोड़ना´ या ´मिलाना´ भी होता है। इसका एक अन्य अर्थ शरीर और मन का पूर्ण
सजगता के साथ कार्य करना भी होता है। योग क्रिया या साधना में मनुष्य शारीरिक
स्वस्थता के अतिरिक्त अपने आत्म ज्ञान द्वारा ईश्वर शक्ति से जुड़ जाता है। योग
साधना में आत्मा व परमात्मा का मिलन होता है। इस मिलन में मनुष्य का शारीरिक,
मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान भी शामिल होता है। योग के महान गुरुओं के
अनुसार ´´ योग शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा की सभी शक्तियों को ईश्वर से जोड़ता है।´´
वे कहते हैं- ´´इसका अर्थ है बुद्धि, मन, भावना तथा इच्छा को अनुशासित करना। योग के
शब्दों में यह कहा जा सकता है कि योग के द्वारा जीव आत्मा का ऐसा संतुलन बनता है
जिससे कोई भी व्यक्ति जीवन की सभी स्थितियों को समान भाव से देख सके।
योग के
द्वारा मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक बुद्धि के विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान
भी प्राप्त होता है।
योग को कई
अर्थों में बताया गया है। योग का अर्थ है चित्त (मन) की चंचलता को रोकना अर्थात
योगाश्चित्तवृत्ति को रोकना आदि। योग की परिभाषा नागोजि भटठ् इस तरह देते हैं
अंत:करण की वृत्तियों का लय ही योग है अर्थात शरीर को चलाने वाले मन को वश में करना
ही योग है। सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात भेद से योग 2 प्रकार का होता है- ध्येय
तत्व का नया साक्षात्कार जिस समाधि में हो वह सम्प्रज्ञात है। सम्प्रज्ञात सबीज
नामों से भी जाना जाता है। दूसरे शब्दों में योग वह है, जिसमें ध्येय
साक्षात्कारारब्ध निरोध रूप मन की अवस्था का नाम सम्प्रज्ञात योग है।
कुछ ऐसे भी
योग के रचनाकार हैं, जो योग का अर्थ अन्य रूप में देते हैं। हठयोग का अध्ययन करने वाले व लिखने वाले योग के
कुछ अन्य ही अर्थ बताते हैं। योग का वर्णन करते हुए कहा गया है कि योग को आत्मा व
परमात्मा को से जुड़ना कहना गलत होगा, क्योंकि दर्शन मतानुसार जीव व आत्मा अलग-अलग
वस्तु नहीं हैं और आत्मा व परमात्मा का जो भेद होता है, उसे बांटा नहीं जा सकता।
अत: यह भेद औपाधिक (गलत, छल) है, क्योंकि चेतना तो एक ही है। अज्ञानता के द्वारा जो
भेद उत्पन्न होता है, उसको दूर करने के लिए योगाभ्यास द्वारा व्यक्ति समाधि में लीन
होता है और अपनी चेतना को जागृत करता है जैसे- वेदांत दर्शन में लिखा गया है।
घटाकोष और मठाकोष की उपाधिरूप घट और मठ नष्ट हो जाने पर एक महाकोष ही रह जाता है।
अत: जीव के अन्दर का संसारिक भाव खत्म होकर ब्रह्मात्व (परमात्मा, ईश्वर) भाव में
लीन हो जाना ही योग है। योग के द्वारा मानव आम जीवन से ऊपर उठकर व्यवहार करता है
तथा योग से मनुष्य का मन और आत्मा (सूक्ष्म शरीर) परमात्मा (ईश्वर) में मिलकर एक हो
जाता है। इसलिए योग को आत्मा और परमात्मा का एक होना कहा गया है।
योग ग्रंथ
में योग के 8 अंगों को बताया गया है। योग की सभी क्रियाओं को पूर्ण रूप से करते समय
मन की चंचलता पर पूर्ण नियंत्रण रखना और असम्प्रज्ञात समाधि तक पहुंचकर अपनी चेतना
को पूरी तरह से लगा देना ही योग है।
प्राचीन
ऋषि-मुनि जड़ चेतन (जीव और निर्जीव) दोनों में एक ही तत्व का होना मानते हैं। मनुष्य
के अन्दर एक आत्मा तत्व होता है, जिसे चेतना कहते हैं। यह चेतना तत्व सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड को ईश्वर से जोड़ता है। जब योग के द्वारा मनुष्य के अन्दर की चेतन तत्व
(आत्मा) ब्रह्माण्ड के चेतन तत्व (ईश्वर) से मिल जाती है तो उसकी शारीरिक एवं
आत्मिक शक्ति हजार गुना अधिक हो जाती है।
भागवत गीता´ में योग का वर्णन-
´कर्मस कोशलं योगा´
अर्थात
किसी काम को पूर्ण रूप से करना ही योग है। दूसरे शब्दों में शरीर और मन से जो कार्य
किया जाता है उसे योग कहते हैं। संसार में मौजूद कोई भी प्राणी (मनुष्य या अन्य
जीव) प्रतिदिन अपने कर्म को करता है। प्रतिदिन किये जाने वाले ये कर्म मन के
अनुसार, शरीर के अंगों के सहयोग से पूर्ण होते हैं और इस कर्म से मिलने वाले फल को
भोगते हैं। यदि मनुष्य अच्छे कर्म करते हैं, तो अच्छा और बुरे कर्म करने पर बुरा फल
पाते हैं। अत: योग मनुष्य को अपने अच्छे कर्म को सही रूप से करने और उसके अच्छे फल
को भोगने का मार्ग दिखाता है। ´भागवत गीता´ के अनुसार यही योग है।
उपनिषदों
के अनुसार योग संचेतन की वह उच्च स्थिति है, जिसमें मस्तिष्क एवं बुद्धि सभी
गतिविधियां रुक जाती हैं।
स्वामी शिवानंद ने योग का वर्णन करते हुए स्पष्ट
रूप से कहा है- ´´योग मन, वचन व कर्म का सामंजस्य तथा एकीकरण या
मस्तिष्क, हृदय और हाथों का एकीकरण है´´ इस प्रकार स्वामी
सत्यानंद सरस्वती योग को स्पष्ट करते हुए कहते हैं´´ मानव के शारीरिक व मानसिक
सामंजस्यता से अन्य सकारात्मक सदगुण उत्पन्न होते हैं। इस सभी से योग की अनेकानेक
परिभाषाएं उभरती हैं´´ नीचे ´भागवत गीता´ के योग खंड से चुनी गई परिभाषा दी जा रही
है-
´योग
सफलता और असफलता के प्रति स्थिति प्रज्ञात होता है।
´योग
कार्य की दक्षता व निपुणता है।´
´योग जीवन
की सर्वोच्च सफलता है।´
´योग
दु:खनाशक होता हैं।´
योग को
साधारण रूप में संचेतना, रचनात्मकता, व्यक्तित्व विकास तथा स्वयं के विज्ञान तथा
शरीर व मस्तिष्क के विज्ञान के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। सभी
व्यक्तियों के लिए योग का अर्थ अलग-अलग हो सकता है फिर भी यह तथ्य पूर्णत: स्पष्ट
है कि योग का सम्बंध मानव के शरीर, बुद्धि तथा संचेतन के समन्वित रूप से रहता
है।
योग के
द्वारा मन के विचारों को स्थिर कर आत्मा में लीन करना ही योग है। शरीर में मौजूद मन
भी शरीर के अन्य अंगों की तरह कार्य करता है, परन्तु मन का संचालन संसारिक वस्तुओं
से होने के अतिरिक्त आत्मा तत्व से भी जुड़ा होता है तथा मन का संचालन उसी सूक्ष्म
तत्व आत्मा से क्रियाशील रहता है। मन ही आत्मा को बाहरी विषयों को आत्मसात करने के
लिए प्रेरित करता है। मन हर समय अपना कार्य करता रहता है तथा यह चंचल एवं चालायमान
है। मन हमेशा इधर-उधर भटकता रहता है। मन सम्पूर्ण शरीर से एक सथा जुड़ा रह सकता
है।
´महर्षि
पतंजलि´ के अनुसार ´योगाश्चित्त वृति निरोध´ अर्थात मन के स्वभाव, मन की चंचलता को
बाहरी वस्तुओं में भटकने से रोकना या शांत करना ही योग है।
पतंजलि के
योग दर्शन के अनुसार चित्तवृतियो (मन के विचार) को क्रमश: स्थिर एवं एकाग्र करते
हुए मन को निस्पन्द स्थिति में लाना होता है। यह चित्त अपनी सत्य, स्वाभाविक स्थिति
एवं पवित्र स्थिति में आने या रहने की हमेशा कोशिश करता रहता है। परन्तु इन्द्रियां
मन को खींचती रहती हैं। सांसारिक वस्तुओं से मन को हटाकर मन को आत्मा में लीन करना
(लगाना) ही योग है। योग ही ऐसा साधन है जिससे मन को नियंत्रित कर चेतन आत्मा का
दर्शन किया जा सकता है।
आत्मा और
परमात्मा को जोड़ने के लिए योग के 8 अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,
धारणा, ध्यान और समाधि।
योग साधना
की अनेक क्रियाएं होती हैं, परन्तु योग के सभी क्रियाओं का लक्ष्य एक ही होता है।
जिस तरह पर्वतों से निकलने वाली नदियों के नाम अलग-अलग होते हैं और बहने के रास्ते
अलग-अलग होते हैं परन्तु अंत में वे सभी समुद्र में जाकर मिल जाती हैं। समुद्र में
मिलने से जिस तरह नदी का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह जाता और वह समुद्र का हिस्सा बन
जाती है, उसी तरह योग की अलग-अलग क्रियाओं को करते हुए मनुष्य ईश्वर में मिल जाता
है। योग से परमतत्व की प्राप्ति होने पर मनुष्य को संसार की किसी वस्तु की इच्छा
नहीं रह जाती तथा वे संसार के सभी वस्तु में ईश्वर को ही देखता है। योग से मन को
सही ज्ञान प्राप्त होता है तथा मन का ध्यान आत्मा तत्व में लगने लगता है, जिससे मन
को परम शांति मिलती है। इस संसार में यदि किसी को ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना है
या उस सूक्ष्म शक्ति को जानना है जिससे इस संसार का संचालन होता है तथा जीवन के
अस्तित्व के बारे में जानना है, तो उसे एक ही चीज से प्राप्त किया जा सकता है, वह
है ´योग´।
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